​अम्बेडकर दर्शन से ही होगा विकास 

(उदित राज)
डॉ. भीमराव अम्बेडकर जयंती आज: भारत रत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने संविधान निर्माण के समय देश की सभी जातियों के लिए समान अवसर को मूल में रखा। आजादी के 70 साल बाद भी देश में दलितों व पिछड़ों की सामाजिक परिस्थितियां जस की तस हैं। क्या इनको कभी सामाजिक भेदभाव और पिछड़ेपन से निजात मिल सकेगी?
डॉ.भीमराव अम्बेडकर का मूल दर्शन देखें तो वह भारत में जातिविहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के पीछे दलित-पिछड़ों की सामाजिक, राजनीतिक एवं शैक्षणिक परिस्थिति ही नहीं बल्कि भारत का लगभग दो हजार वर्ष पुराना इतिहास रहा है।

बाबा साहब अम्बेडकर के दर्शन का अध्ययन करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि अगर भारत विदेशी आक्रांताओं से बार-बार पराजित होता रहा तो उसके पीछे समाज का विभिन्न जातियों में बंट जाना रहा। देश की रक्षा की जिम्मेदारी एक विशेष जाति को दे दी गई और शेष से जैसे कोई मतलब ही नहीं रहा। कभी-कभी यही शेष जातियां आक्रमणकारियों का साथ देने में कोई संकोच नहीं करती थीं क्योंकि बंधुत्व का अभाव था। देश का कोई राजनीतिक दल स्वीकार नहीं कर सकता कि वह जाति से ऊपर उठा है।

सुविधानुसार जाति का प्रयोग सभी करते हैं, फर्क है तो तरीके में। यह भी इतनी आपत्तिजनक बात नहीं है जितना कि अम्बेडकर के दर्शन को आधार बना कर जात-पांत करना। आज भी जब चुनाव के समय उम्मीदवारों से प्रतिवेदन मंगाए जाते हैं, तो चुनाव लडऩे वाले की जाति ही प्रमुखता से देखी जाती है। यदि उनके बायोडाटा को पढ़ लिया जाए तो शत-प्रतिशत मामलों में जाति समीकरण को पक्ष में ही समझाने का प्रयास किया जाता है।
नेता भी साक्षात्कार के समय जाति को केंद्र मानकर उम्मीदवारी का मूल्यांकन करते हैं। तह में जाति और सतह पर विचार, सिद्धांत, विकास यही है राजनीति। देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि कब हम इस दैत्य के प्रभाव को कम कर सकेंगे। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक हम अमरीका, जापान, चीन जैसे विकसित देशों की कतार में खड़े नहीं हो सकते।
हो सकता है कुछ लोगों को मेरी यह बात अर्थहीन लगे लेकिन यह अकाट्य सत्य है। यह अकाट्य सत्य इसलिए है कि इसका प्रभाव शासन-प्रशासन पर ही नही बल्कि सोच पर भी पड़ता है, बिना सोच के आज तक दुनिया में कोई देश और समाज न तो विकसित हो पाया है और न ही खुशहाल। वैसे गुजारा तो हो ही जाता है। अम्बेडकरी विचारधारा पर लाखों सामाजिक संगठन हैं जो जाति का निषेध करते तो है लेकिन चेतन एवं अचेतन अवस्था में जातीय संकीर्णता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। राजनीतिक दल नाम मात्र के हैं।
बाबा साहब डॉ.अम्बेडकर ने गौतम बुद्ध के मूल मन्त्र ‘बहुजन-हिताय, बहुजन सुखाय’ को अपनाया। यह समता का द्योतक है। इसी को मूल वाक्य बनाकर उत्तर प्रदेश में एक राजनीतिक पार्टी का निर्माण हुआ। सभी दलित-पिछड़ी जातियों को जोडऩे का यह आधार बना। प्रशिक्षण शिविरों, सभा और सम्मेलनों में कहा जाने लगा कि अब बहुजनों को इकठ्ठा होकर अपनी हुकूमत लेनी है। जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागेदारी के नारे ने दलितों-पिछड़ों को खासा आकर्षित किया।

शुरुआत के दौर में न केवल दलित जातियां बल्कि पिछड़ी जातियां भी तेजी से जुड़ीं। धीरे-धीरे कारवां बनता गया और लोग जुड़ते गए। वह दिन भी आया जब सत्ताधारी बन गए। सत्ता में आते ही वही सारे अवगुण और दोष आने लगे जो और जगहों पर होते हैं। एक विशेष जाति ने पूरे संगठन पर कब्जा कर लिया। सर्वजन छवि बनाए रखने के लिए प्रतीकात्मक रूप से कुछ ब्राह्मण और कुछ अल्पसंख्यक को चेहरा बना लिया।
इसी प्रक्रिया में अति पिछड़े और दलित छूटते और बिछड़ते चले गए। सामाजिक व राजनीतिक प्रक्रिया में नित कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों से संवाद का न होना, उनके हाथों और पैरों को जकड करके रख देना, न वो मीडिया में जा सकते है और न ही स्थानीय स्तर पर। चाहे मुद्दों को लेकर ही संघर्ष करने की बात हो या उस स्तर के फैसले करने की आज़ादी। इसका प्रतिकूल असर यह पड़ा कि जब शुरू में कुछ भागेदारी रही और सपना चकनाचूर नहीं हुआ, ऊपर से ठीक -ठाक दिखा लेकिन अन्दर असंतोष पनपता रहा। ऐसे में जातिविहीन समाज स्थापना होना असंभव लगता है।
भले ही इस लक्ष्य की प्राप्ति में सैकड़ों साल लग जाएं पर कम से कम जिसकी संख्या भारी, उसको उतनी भागेदारी तो मिलनी चाहिए। जातिविहीन समाज की स्थापना की रफ्तार नहीं पकड़ेगी जब तक कि तथाकथित सवर्ण इसमें भागीदारी नहीं करते हैं।
बिहार, उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जातिगत राजनीति के दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। वहां पर अगर जातिगत बंधन नहीं तोड़े जा सकते थे तो कम से कम पिछड़ी हुई जातियों की भागेदारी तो हो सकती थी। लेकिन, हुआ इसका ठीक उल्टा कि उन्हें बाहर का दरवाजा दिखा दिया जाने लगा।
हालात यहां तक पैदा हो गए कि दूसरे संगठन या दल में अम्बेडकर या दलित और पिछड़ों की बात करने वाला भी विरोधी मान लिया गया। वास्तव में जो इनके साथ जुड़ गया, वही बहुजनी, बाकी मनुवादी। अंधभक्ति और जातिवाद का चश्मा ऐसा चढ़ गया कि अगर अन्य कोई उत्थान भी करना चाहता हो तो उसमें भी इनको दोष दिखने लगा। इससे इन पार्टियों के प्रति दलितों की सहानुभूति खत्म होती चली गई और अन्दर की घुटन का परिणाम नजर आने लगा। हो सकता है कि आने वाले दिनों में और भी गिरावट देखने को मिले।
सौजन्य – पत्रिका।